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बी.आर. शिनॉय

सत्य की एकमात्र तलाश

- महेश पी भट्ट

स्वर्गीय प्रोफेसर बी.आर. शिनॉय एक विश्व-विख्यात अर्थशास्त्री थे। नोबेल पुरस्कार विजेता मिल्टन फ्रायडमैन के शब्दों में, ''प्रो. बी.आर. शिनॉय एक ऐसे महान व्यक्ति थे जिनके पास भारत में केंद्रीय आयोजना में व्याप्त त्रुटियों को पहचानने की समझ थी तथा उनमें जो बात और भी दुर्लभ थी, वह बिना किसी झिझक के अपने दृष्टिकोण को खुले तौर पर व्यक्त करने का साहस था। वस्तुतः कभी-कभार ही ऐसे व्यक्ति हमारे समाज में जन्म लेते हैं।''

लगभग ढाई दशकों तक, प्रोफेसर शिनॉय की भारतीय आर्थिक नीति और आयोजना पर होने वाले विचार-विमर्श पर अमिट छाप रही। व्यावसायिक और लोकप्रिय जर्नलों में उनके द्वारा बड़ी संख्या में किए गए लेखों के योगदान ने उन्हें विश्व स्तर पर एक अत्यंत शक्तिशाली समालोचक के रूप में विख्यात कर दिया था, जिनके विषय में प्रोफेसर बॉयर ने कहा था, ''डेवलपमेंट इकोनॉमिक्स की बनावटी सर्वसम्मति।''

वे प्रशिक्षण और साथ ही गहन रूप से उदारवादी परंपरा के अर्थशास्त्री थे, अतः उन्होंने स्वयं को स्वाभाविक तौर पर विकासशील आयोजना की ''मुख्यधारा'' में हमेशा असहमत ही पाया। उनके विचार हायकियन उदारवाद से अत्यधिक प्रभावित थे तथा अपने संपूर्ण जीवन में एक अर्थशास्त्री, एक सामाजिक दार्शनिक और एक आलोचक के रूप में, वे सदैव ही एक उग्र एवं समझौता न करने वाले उदारवादी ही बने रहे। वे दूसरी पंचवर्षीय योजना में अपनाई गई विकास रणनीति के घोर विरोधी थे। उनके अनुसार, महत्वाकांक्षी निवेश योजनाओं संसाधन संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए घाटे की अर्थव्यवस्था पर अपनी व्यापक निर्भरता के साथ वह रणनीति देश को मुद्रास्फीति तथा नियंत्रणों की व्यवस्था में स्थायी रूप से ले जाने के लिए प्रतिबद्ध थी। उनके विचार में, एक वास्तविक विकासोन्मुखी रणनीति के लिए वित्तीय एवं मूल्य संबंधी स्थायित्व को बनाए रखने की नीति के प्रति एक यथार्थवादी एवं दीर्घकालिक प्रतिबद्धता को उसका एक अनिवार्य अंग होना आवश्यक है। इसके अतिरिक्त, अत्यंत उच्च पूंजी-उन्मुखी वस्तु उद्योगों का विकास करने पर बल देने वाली भारतीय योजना के परिणामस्वरूप कृषि और अन्य क्षेत्रों की ओर से संसाधनों का बड़े पैमाने पर पलायन कम लाभ देने वाले सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों की ओर हो रहा है। वस्तुतः यह एक कम रोजगार सृजित करने वाली रणनीति है, जो उनके विचार से भारत जैसा गरीब देश वहन कर सकने में असमर्थ था।

एक अत्यधिक सामान्य स्तर पर, प्रोफेसर शिनॉय उस समय के अधिकांश विकास संबंधी अर्थशास्त्रियों की क्रियाविधिक (Methodological) भविष्यवाणियों से सहमत प्रतीत नहीं होते थे, जो यांत्रिक विकास मॉडलों के संदर्भ में विकासात्मक मुद्दों को तैयार कर रहे थे और उनका विश्ललेषण करने में जुटे थे, और जिनमें मूल्य-सैद्धांतिक विषय वस्तु का स्पष्ट अभाव था। उन्होंने विकास की प्रक्रिया को सर्वाधिक जटिल प्रक्रिया माना और इस बात पर विश्वास किया कि इसे केवल मुक्त बाजारों और विकेंद्रीकृत विकल्पों के माहौल में व्यक्ति विशेषों के आर्थिक क्रिया-कलापों के मात्र एक सह-उत्पाद के रूप में ही हासिल किया जा सकता है। उनके विचार में, प्रशासनिक आदेशों के माध्यम से ''बाजार अवधारित'' प्राथमिकताओं को ''योजनाबद्ध'' प्राथमिकताओं से बदलने का प्रयास, चाहे वह कितना भी सुशासित क्यों न हो, सदैव ही मजबूती की समझ एवं संज्ञान की दृष्टि से अत्यंत कमजोर होते हैं, और ऐसे प्रयासों के प्रति बाजार की प्रतिक्रिया की दिशा और इन प्रतिक्रियाओं के अंतिम आवंटनात्मक एवं वितरणात्मक प्रभाव भी क्षीण होते हैं। सामान्यतः ये प्रयास ऐसे परिणाम उत्पन्न करते हैं, जो उनकी प्रतिक्रियाओं से बिल्कुल उलट होते हैं। स्वाभाविक रूप से, प्रचलित दृष्टिकोण के साथ उनकी असहमति ऐसे मुद्दों से संबंधित होती थी, जिनकी प्रकृति आधारभूत होती थी और उनके प्रति उनका विरोध पूर्ण नहीं होता था।

वर्ष 1955 से पूर्व, उनकी रुचि सैद्धांतिक एवं अनुपयुक्त अर्थशास्त्र के बीच मोटे तौर पर बराबर ही विभाजित रही। उन्होंने अपना पहला पेपर क्वार्टरली जर्नल ऑफ इकोनॉमिक्स (1931) में प्रकाशित किया था, जिसका शीर्षक था, ''एन इक्वेशन फॉर दि प्राइज़ लेवल ऑफ न्यू इन्वेस्टमेंट गुड्ज़''। यह पेपर ट्रीटाइज़ ऑफ मनी में ''फंडामेंटल इक्वेशन'' में नई निवेश वस्तुओं के मूल्य स्तर के कीन्स के सिद्धांत पर उनके द्वारा व्यक्त किए गए असंतोष के नतीजतन लिखा गया था। प्रोफेसर शिनॉय के विचार में कीन्स की चर्चा केवल यह दर्शाती थी कि किन परिस्थितियों में बैंकिंग प्रणाली को निवेश वस्तुओं के मूल्य-स्तर में शामिल होने से बचना चाहिए तथा इसमें और अधिक आधारभूत मुद्दों का समाधान नहीं किया गया था कि नई निवेश वस्तुओं के मूल्य-स्तर स्वयं ही किस प्रकार अवधारित होते हैं। ट्रीटाइज़ की अभिव्यक्तियों और परिभाषा के ढांचे का अनुपालन करते हुए प्रोफेसर शिनॉय ने अतिरिक्त समीकरणों द्वारा आधारभूत समीकरणों की प्रणाली को संपूरित किया तथा यह दर्शाने का प्रयास किया कि किस प्रकार कोई प्रणाली नई निवेश वस्तुओं के मूल्य-स्तर के लिए एक अवधारित समाधान पैदा कर सकती है। इसके पश्चात्, उन्होंने क्वार्टरली जर्नल ऑफ इकोनॉमिक्स (1933) में एक और पेपर ''इंटरडिपेंडेंस ऑफ प्राइम लेवल्स'' प्रकाशित किया, जिसमें उन्होंने इस मुद्दे से संबंधित और अधिक महत्वपूर्ण परिणाम प्रस्तुत किए।

इन दोनों पेपर्स को संबद्ध क्षेत्र में अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान के रूप में लिया गया और वे अपने व्यवसाय की परिधि में एक उभरते हुए वित्तीय अर्थशास्त्री के रूप में स्थापित हो गए। वे संभवतः पहले भारतीय अर्थशास्त्री थे, जिनके सैद्धांतिक पेपर्स को विश्वस्तरीय जर्नल में प्रकाशित किया गया था।

परंतु वर्ष 1955 के बाद से बदलते हुए बौद्धिक परिवेश में उन्होंने भारतीय आर्थिक नीति तथा आयोजना पर ही ध्यान केंद्रित किया। भारतीय अर्थव्यवस्था नीति के क्षेत्र में उनके सहयोग को दृष्टिकोण की महत्वपूर्ण एकजुट बाजार सिद्धांतों की अद्भुत समझ तथा संसाधनों के आवंटन में मूल्य तंत्र की भूमिका की समझ के रूप में विशिष्ट माना जाता है। ये लेखक के सिद्धांतों के सृजनात्मक अनुप्रयोग की विशेषता तथा निर्णय, प्रासंगिकता और संदर्श की सच्ची भावना की ठोस गवाही देते हैं। इनसे भी ऊपर, ये एक ऐसे सामाजिक वैज्ञानिक की ओर इशारा करते हैं, जिसके मन में अपने शिष्यों के प्रति अगाध सम्मान था, जिसने निष्कर्षों को हासिल करने के लिए कोई समझौता नहीं किया तथा एक बार उन्हें निर्धारित कर लेने पर, उनका साहस के साथ अनुरक्षण किया। प्रोफेसर शिनॉय यदि कुछ थे, तो वे अगुवा लोगों में से थे। वे ऐसे अर्थशास्त्री थे, जिन्होंने अल्पसंख्यक मत में भी अपनी सही बात पर कायम रहने का साहस दिखाया था। अपने विषय पर उनके द्वारा किए गए प्रत्येक महत्वपूर्ण योगदान की वजह से भारतीय अर्थशास्त्रियों के बीच दीर्घकालिक विवाद उठा और अनेक यादगार बहसें छिड़ीं। यहां यह दावा करना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि विकासात्मक विषयों के विश्लेषण में, बाजार के सिद्धांत के वास्तविक महत्व के प्रदर्शन में उनके योगदान बहुत ही लाभकारी रहे हैं तथा इस प्रकार उन्होंने भारतीय अर्थव्यवस्था की समस्याओं पर व्यावसायिक चर्चा के चरित्र एवं गुणवत्ता में परिवर्तन ला दिया।

दूसरी पंचवर्षीय योजना की तैयारियों के समय भारत सरकार ने अर्थशास्त्रियों का एक पैनल तैयार किया और प्रोफेसर शिनॉय को इसका सदस्य बनने के लिए आमंत्रित किया। पैनल के सदस्य के रूप में, उन्होंने घाटे की अर्थव्यवस्था के व्यापक कार्यक्रम के विरुद्ध अपनी सुविख्यात ''असहमति की टिप्पणी'' लिखी जिसे दूसरी योजना के सदस्यों द्वारा बहुमत में अपने ज्ञापन में प्रस्तावित किया गया था। उन्होंने अपनी असहमति की टिप्पणी में लिखी गई बातों को विस्तारित रूप से तथा अधिक विस्तार में अपने सर विलियम मेयेर्स व्याख्यान(1955-56) में उल्लिखित किया, जो उन्होंने मद्रास विश्वविद्यालय में दिया था। इन व्याख्यानों को बाद में मद्रास विश्वविद्यालय द्वारा प्रॉब्लम्स ऑफ इंडियन इकोनॉमिक डेवलपमेंट नामक पुस्तक के रुप में प्रकाशित किया गया था।

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बी.आर. शिनॉय के चुनिंदा प्रकाशन
 

  1. सीलॉन करेंसी ऐंड बैंकिंग, लॉन्गमैन ग्रीन्स ऐंड कं मद्रास, 1941।
  2. बॉम्बे प्लान- ए रिव्यू, कर्नाटक पब्लिशिंग हाउस, बंबई, 1944।
  3. पोस्ट वार डिप्रेशन ऐंड दि वे आउट, किताबिस्तान, इलाहाबाद, 1945।
  4. स्टर्लिंग एसेट्स ऑफ दि आरबीआइ, इंडियन काउंसिल ऑफ वर्ल्ड अफेयर्स, नई दिल्ली, 1946।
  5. फॉरेन एक्सचेंज सिचुएशन, फोरम ऑफ फ्री इंटरप्राइज़, बॉम्बे, 1957।
  6. प्रून दि प्लान, फोरम ऑफ फ्री इंटरप्राइज़, 1957।
  7. प्रॉब्लम्स ऑफ इंडियन इकोनॉमिक डेवलपमेंट, मद्रास विश्वविद्यालय, 1958।
  8. स्टेबिलिटी ऑफ दि इंडियन रुपी- ए रिव्यू ऑफ दि फॉरेन एक्सचेंज सिचुएशन, हेरॉल्ड लास्की इंस्टीट्यूट ऑफ पॉलिटिकल साइंस, इलाहाबाद, 1959।
  9. नेशनल सेविंग्स ऐंड द इंडस्ट्रियल फाइनेंसः इंडियन एक्सपीरियंस, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस, बंगलोर, 1961।
  10. इंडियन प्लानिंग ऐंड इकोनॉमिक डेवलपमेंट, एशिया पब्लिशिंग हाउस बॉम्बे,1963।
  11. इंडियन इकोनॉमिक पॉलिसी, पॉपुलर प्रकाशन बॉम्बे, 1968।
  12. पीएल480 ऐंड इंडियन फूड प्रॉब्लम, एफिलिएटेड ईस्ट वेस्ट प्रेस, नई दिल्ली, 1974।

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