हिंदी बनाम अंग्रेजी नहीं हिंदी संग अंग्रेजी

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नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति आने के बाद से ही आरंभिक शिक्षा का माध्यम क्या हो इसे लेकर बहस का दौर फिर से शुरु हो गया है। बहस इस बात पर है कि छात्रों को प्राथमिक शिक्षा स्थानीय भाषा में प्रदान करना ठीक होगा या मातृभाषा में या फिर हिंदी में!
 
थोड़ा फ्लैश बैक में चलते हैं। अभी उस जमाने को बीते तीन दशक भी नहीं हुए हैं जब देश में सर्वाधिक सुसंस्कृत व उच्च शिक्षित लोग अंग्रेजी बोला करते थे। यदि आप उन लोगों में से रहे हों तो पता होगा कि वह कितना अद्‌भुत दौर था। मेरे मरहूम दादाजी बताते थे कि कैसे उस समय सिर्फ अंग्रेजी बोलने भर से आप ‘हाई क्लास’ के हो जाते थे। यह दुर्लभ तबका आबादी के 5 फीसदी से भी कम था। यदि कोई ‘आप कैसे हैं?’ की जगह ‘हे, हाउ डू यू डू?’ कह देता तो आबादी के 95 फीसदी तबके से ऊपर उठ जाता था।

आप समाज में क्रीमीलेयर वाले तबके में शुमार हो जाते थे। एक ऐसा लेयर जो समाज में रहते हुए भी सबसे अलग और सबसे ऊपर का दर्जा हासिल करता था। आप शीर्ष पदों के लिए इंटरव्यू दे सकते थे, कुलीन वर्ग (अंग्रेजी) की कला और मनोरंजन तक आपकी पहुंच होती थी और सुसंस्कृत लोग आपके परिचितों के दायरे में होते थे। गरीबी से जकड़े भारत में अंग्रेजी से जिंदगी अद्‌भुत हो जाती थी, क्योंकि देशी भाषाओं के शेष निम्न वर्ग की तुलना में आप श्रेष्ठतर होते थे।

इस श्रेष्ठ वर्ग में भी कई उपवर्ग थे। मसलन, यदि आप अंग्रेजी किताबें पढ़ते हैं तो आप अपने आप इस कुलीन तबके के कुलीनतम यानी शायद इस 5 फीसदी के 0.5 फीसदी तबके का हिस्सा बन जाते थे। यदि आप अंग्रेजी बोल लेते हैं और उस भाषा की किताब पढ़ने में समर्थ थे तो समाज में विशिष्ट व्यवहार प्राप्त करने का विशेषाधिकार हासिल हो जाता था। आपके बच्चों को यह विशेषाधिकार अपने आप ही मिल जाता था और यदि उन्हें अंग्रेजी के दुर्लभ स्कूलों में भर्ती करा दिया जाए तो वे और भी अच्छी अंग्रेजी बोलने लगते थे और जल्द ही समाज के शीर्ष स्तर पर पहुंच जाते थे।

फिर यह तिलिस्म टूटने लगा। 1980 के दशक में केबल टीवी आया। फिर आया इंटरनेट। मोबाइल फोन, यू-ट्यूब और सोशल मीडिया आए। और सबकुछ भरभराकर ढह गया। हर कहीं जैसे अंग्रेजी की बमबारी शुरू हो गई। अन्य तबकों ने भी समझ लिया कि अंग्रेजी सुनहरी दुनिया का टिकट है और इसे लपक लेने में ही भलाई है। यह सही है कि इनमें से सभी की पहुंच अंग्रेजी सीखने की श्रेष्ठतम सुविधाओं तक नहीं थी। इसके बावजूद इसे सीखने के लिए वे जो भी कर सकते थे, उन्होंने किया।

छोटे कस्बों के अंग्रेजी पढ़ाने वालों से काम चला लिया। फोन मैन्यू का अर्थ उन्हें खुद ही लगाना पड़ता था और वे सब-टाइटल्स के साथ अंग्रेजी फिल्में देखने लगे। पिछले 20 वर्षों में ज्यादा से ज्यादा भारतीयों ने अंग्रेजी को आत्मसात किया है। कॉन्स्टेबल, ड्राइवर, पेट्रोल पम्प अटेंडेंट, छोटे रेस्तरां के वेटर, कॉल सेंटर का स्टाफ- इस तरह के कई लोग अंग्रेजी समझने लगे और उनके पास सीमित ही सही, अंग्रेजी का शब्द भंडार हो गया।

अब अंग्रेजी के उस दुर्लभ तबके के हश्र की कल्पना कीजिए। उसके लिए दो आंसू बहाइए, जिन्हें अपनी हिफाजत से रखी भाषा को आम लोगों के बीच जाते देखना पड़ रहा है। अब इन्हीं आम लोगों में से कुछ इंटरव्यू में उनके साथ बैठकर स्पर्द्धा बढ़ाएंगे। ये आम लोग अब अंग्रेजी में ‘स्पाइडरमैन’ देख सकते हैं। ये आम लोग अंग्रेजी किताबें तक पढ़ रहे हैं, उनमें से निकले लोगों के अंग्रेजी स्तंभ पढ़ रहे हैं। यह देश कहां आ गया है?

अब आम और कुलीन वर्ग के बीच अंग्रेजी-हिंदी के आधार पर फर्क नहीं किया जा सकता, क्योंकि अब छोटे बजट स्कूलों में 50 रूपए से 100 रूपए फीस चुकाने वाला छात्र भी अच्छी और फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने लगा है। हर सुधि अभिभावक अपने बच्चों को अंग्रेजी में बोलता देखना चाहता है और इसके लिये निशुल्क सरकारी स्कूलों को छोड़कर प्राइवेट स्कूलों का रूख करना शुरु किया। इससे सरकार पर अपने स्कूलों में भी अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा देने की जरूरत महसूस होने लगी, अन्यथा स्कूल पहले से ही खाली स्कूल बियाबान बन जाते। कई राज्यों की सरकारों ने अपने यहां सैकड़ों अंग्रेजी माध्यम के स्कूल स्थापित करने लगीं लेकिन छात्रों को आकर्षित करने में सफल नहीं रहीं।

हालांकि इस तथ्य से भी मूंह नहीं मोड़ा जा सकता कि मातृभाषा में प्रदान की गई शिक्षा छात्रों को न केवल सुगमता पूर्वक सीखने में मदद करती है बल्कि यह ताउम्र उनके मनस पटल पर विद्यमान भी रहती है। लेकिन यह भी तथ्य है कि दूसरी भाषा तेजी से सीखने की नैसर्गिक क्षमता जितनी 10 वर्ष तक के बच्चों की होती है उतनी उसके बाद नहीं होती। जाने माने लेखक व विचारक गुरचरण दास ने इस समस्या के बीच का रास्ता सुझाया है। उनके मुताबिक स्कूलों में ह्यूमैनिटिज के विषयों जैसे हिंदी, इतिहास, सामाजिक विज्ञान आदि की शिक्षा मातृभाषा में प्रदान की जाए और बाकी के विषयों जैसे विज्ञान, गणित आदि की शिक्षा अंग्रेजी में प्रदान की जाए। 

हालांकि, मैं अंग्रेजी की बहस को यही तक सीमित रखूंगा, क्योंकि तथ्य तो यही है कि राष्ट्र के लिए अंग्रेजी का अत्यधिक महत्व है। अंग्रेजी वैश्विक भाषा है। यह न सिर्फ दुनिया के सबसे धनी और प्रगत देशों (अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और यूरोप) की आधिकारिक भाषा है बल्कि बिज़नेस, पर्यटन, कानून और शोध के लिए यह एक साझा मंच है, साझी संपर्क भाषा है। जापान, चीन, कोरिया जैसे तमाम देश जिन्होंने पूर्व में निज भाषा को प्रोत्साहित किया, उन्हें भी अंग्रेजी की महत्ता अच्छी तरह समझ में आ चुकी है। अब इन देशों के लाखों छात्र अंग्रेजी की शिक्षा न केवल ग्रहण कर रहे हैं बल्कि अपने देश की तरक्की में बढ़चढ़कर योगदान भी दे रहे हैं।  

लेकिन हमारे देश में राष्ट्रभक्ति, राष्ट्रभाषा, स्थानीय संस्कृति को सहेजने के नाम पर छात्रों को अंग्रेजी भाषा के ज्ञान से वंचित करने की नीति पर आगे बढ़ा जा रहा है। जबकि हमें अंग्रेजी सीखने वाले उन लाखों लोगों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण नजरिया रखना चाहिए, जो आदर्श संसाधनों के अभाव के बावजूद अंग्रेजी सीखने के लिए कड़े प्रयास कर रहे हैं। इसकी सिर्फ एक वजह है- वे जिंदगी को बेहतर बनाना चाहते हैं। अंग्रेजी-हिंदी, इंडिया-भारत बहस के केंद्र में यही बात है। अंग्रेजी बनाम हिंदी अब कोई चयन की बात नहीं रही। यदि कोई भारतीय यह भाषा सीखना चाहता है तो उसके पास यह विकल्प होना चाहिए। आधारभूत अंग्रेजी को भी कौशल के रूप में देखा जाना चाहिए और इसे प्रोत्साहित किया जाना चाहिए न कि इसके राह में रोड़े अटकाए जाने चाहिए।

- अविनाश चंद्र

लेखक के बारे में

स्वाति राव
डिस्क्लेमर:

ऊपर व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं और ये आवश्यक रूप से आजादी.मी के विचारों को परिलक्षित नहीं करते हैं।

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