साक्षात्कारः जीएम क्रॉप्स को मना करना किसानों के पैर पर कुल्हाड़ी मारना हैः सुधांशु कुमार

आज किसानों को अन्नदाता की भूमिका से निकालकर फार्मप्रेन्योर बनाने और खेती को मुनाफे की वृति बनाने के लिए तमाम जतन किये जा रहे हैं और नीतियां बनाई जा रही हैं। हालांकि देश में बहुत सारे फार्मप्रेन्योर पहले से ही नई तकनीक और गैर परंपरागत फसलों की मदद से न केवल जबर्दस्त मुनाफा कमा रहे हैं बल्कि अन्य लोगों को इस क्षेत्र में आने और लाभ कमाने के लिए प्रेरित भी कर रहे हैं। ऐसे ही एक फार्मप्रेन्योर हैं सुधांशु कुमार जो कि बिहार के समस्तीपुर के एक छोटे से गांव नयानगर से आते हैं। सुधांशु कुमार ने दिल्ली विश्वविद्यालय के हंसराज कॉलेज से ग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट हैं और उन्होंने बिहार के अपने गांव में गैर परंपरागत तरीके से खेती कर काफी मुनाफा कमाया है। साक्षात्कार की इस कड़ी में आज़ादी.मी के संपादक अविनाश चंद्र बातचीत कर रहे हैं सुधांशु कुमार से और उनकी सफलता के राज को जानने की कोशिश कर रहे हैं..

प्रश्नः सुधांशु जी, दिल्ली के हंसराज कॉलेज से पढ़ाई करने और अच्छी नौकरी छोड़कर आप गांव लौटे और खेती का काम शुरु किया। ये उल्टी गंगा कैसे बही? क्योंकि आमतौर पर लोग गांव से शहर आने के बाद वापस जाना पसंद नहीं करते।
उत्तरः
 मेरी स्कूलिंग दार्जलिंग के सेंट पॉल स्कूल बोर्डिंग स्कूल से हुई जिसके बाद ग्रेजुएशन और पोस्ट ग्रेजुएशन दिल्ली के हंसराज कॉलेज से किया। 1987 में मुझे मुन्नार के टाटा टी गार्डन में असिस्टेंट मैनेजर की नौकरी मिली। मेरे छोटे भाई ने भी उसी स्कूल और कॉलेज से पढ़ाई करने के बाद ऑफिसर्स ट्रेनिंग एकेडमी, चेन्नई ज्वाइन की। हम दोनों ने गांव वापस जाकर खेती करने का फैसला किया और गांव लौट आए। हमारे पिताजी हमारे इस फैसले से काफी नाराज थे और वे हमें प्रशासनिक अधिकारी बनाना चाहते थे। हमारे जिद्द के आगे वे झुक तो गए लेकिन उन्होंने हमें जमीन का सबसे मुश्किल हिस्सा दिया ताकि हम परेशान होकर वापस लौट जाए। लेकिन हमने पहले प्रयास में ही जिस जमीन के टुकड़े से हमारे पिताजी की आमदनी अधिकतम 25 हजार होती थी, हमने एक लाख 35 हजार रुपए कमाए। उसके बाद हमने पीछे मुड़कर नहीं देखा और आज हम उसी जमीन के टुकड़े से 13 से 14 लाख रुपए प्रतिवर्ष कमाते हैं।

प्रश्नः आपकी इस सफलता का राज क्या है?
उत्तरः
 हमने नई कृषि क्षेत्र में उपलब्ध नवीनतम तकनीक का प्रयोग किया जैसे कि लीची के 18 बीघे के 11सौ पेड़ों के प्लॉट में माइक्रो इरिगेशन प्लांट लगाया। उसके बाद केले के 40 बीघे के प्लॉट में पूर्णतया ऑटोमेटेड सिस्टम स्थापित किया है जिसमें खेत तक ब्रॉडबैंड, सीसीटीवी कैमरा शामिल है। हम दुनिया के किसी भी हिस्से में बैठे हों, खेत में पानी की क्या स्थिति है, कितनी सिंचाई करनी है सबकुछ बैठे बैठे नियंत्रित कर लेते हैं। हमारे इस प्रयास को सरकार से भी सराहना मिली है और हाल ही में सरकार के मंत्री ने हमारे फार्म का मुआयना किया। तमाम मीडिया ने भी हमारे प्रयास को कवरेज दिया। हम इस आधुनिक तकनीक के माध्यम काफी अच्छा मुनाफा कमा रहे हैं।

प्रश्नः जेनेटिकली मॉडिफाइड क्रॉप्स को लेकर देश की सरकारों के अबतक के रुख को आप किस प्रकार देखते हैं? 
उत्तरः
 मैं कृषि के अपने तीन दशक से अधिक के अनुभव को दाव पर लगाते हुए कहता हूं कि इंडिया में जीएम क्रॉप पर रोक लगाकर किसानों के पैरों पर कुल्हाड़ी मारने का काम किया गया है। आज नाइजीरिया, युगांडा, किनिया जैसे देश जीएम क्रॉप को अपना कर कृषि के क्षेत्र में दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की कर रहे हैं लेकिन हमारे यहां इस पर रोक है। यह ठीक वैसे ही है जैसे कि आप मर्सडीज़ कार चलाएं और उसमें पहिया लकड़ी का लगा हो।
आप को बता दूं कि हम बाजार से बैंगन नहीं खरीदते। बाजार में मिलने वाला बैंगन विशुद्ध जहर है क्योंकि बीज डालने के बाद से उसे तोड़कर बाजार में बेचने से पहले तक 72 बार कीटनाशकों का छिड़काव किया जाता है। ये कीटनाशक इंसान की सेहत के लिए भी काफी हानिकारक हैं।
हमने बीटी ब्रिंजल को मना कर दिया जबकि उसमें एक बार भी कीटनाशकों को स्प्रे करने की जरूरत नहीं पड़ती। आज बांग्लादेश ने भी बीटी ब्रिंजल को अपना लिया है। हमारे देश में बांग्लादेश से बीटी बैंगन छिपे रास्ते से पहुंच रहा है और पूरे बाजार में छाया हुआ है। अर्जेंटिना, अमेरिका, रूस, चीन, कनाडा जैसे सभी बड़े कृषि प्रधान देश जीएम क्रॉप्स को अपना चुके हैं लेकिन न जाने भारत देश में इस पर क्यों रोक लगाया है?

प्रश्नः कुछ लोगों का तर्क है कि जीएम बीजों के माध्यम से बहुराष्ट्रीय कंपनियां देश की खेती पर नियंत्रण कर लेंगी।
उत्तरः 
यह डर गैरतार्किक कारणों पर आधारित है। दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डा. पेंटल ने जीएम मस्टर्ड विकसित किया तो भी आपने उसकी अनुमति नहीं दी। वो तो विदेशी नहीं हैं हमारे देश के वैज्ञानिक हैं। जबकि यह विदित तथ्य है कि उस मस्टर्ड में फली ज्यादा होती है और उसमें तेल ज्यादा होता है। इसी प्रकार यदि हम दालों की बात करें तो अकेले बिहार में इतनी क्षमता है कि देश की दाल की कुल मांग के आधे हिस्से की पूर्ति वह स्वयं कर सकता है। लेकिन कुछ खास प्रकार की बीमारियों और सूखने की बीमारी के कारण उनकी उपज का बड़ा हिस्सा बर्बाद हो जाता है। यदि जीएम बीज का इस्तेमाल किया जाए तो इस बीमारी का इलाज हो जाएगा और हम दालों के उत्पादन में न केवल आत्म निर्भर हो जाएंगे बल्कि दूसरे देशों को भी पर्याप्त मात्रा में निर्यात करने लगेंगे। इसी प्रकार यदि हम जीएम कॉर्न को आत्मसात कर लेते हैं हमारी लागत चौथाई रह जाएगी।

लेखक के बारे में

अविनाश चंद्र

अविनाश चंद्र वरिष्ठ पत्रकार हैं और सेंटर फॉर सिविल सोसायटी के सीनियर फेलो हैं। वे पब्लिक पॉलिसी मामलों के विशेषज्ञ हैं और उदारवादी वेब पोर्टल आजादी.मी के संयोजक हैं।

डिस्क्लेमर:

ऊपर व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं और ये आवश्यक रूप से आजादी.मी के विचारों को परिलक्षित नहीं करते हैं।

Comments

जनमत

नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति महामारी जैसी परिस्थितियों से निबटने के लिए उचित प्रावधानों से युक्त है?

Choices