बड़े-छोटे सभी स्कूलों को एक तराजु में क्यों तौलें!
बहु विविधताओं वाले भारत में यहां की भौगोलिक और पारिस्थितिक स्थिति, रहन-सहन, बोलचाल, खान-पान, भाषा-संस्कृति, जरूरतें आदि लगभग सभी चीजों में भिन्नताएं हैं। यह एक ऐसी अनूठी विशेषता है जिस पर प्रत्येक देशवासियों को गर्व है और हम सभी का यह फर्ज है कि इस विशेषता को सहेज कर रखें।
किसी दार्शनिक ने जब ‘एक कमीज सभी पर बराबर नहीं अंट सकती’ (वन शर्ट डज़ नॉट फिट ऑल) का दर्शन प्रस्तुत किया होगा तो कहीं न कहीं हमारे देश की विविधताएं उसके जेहन में अवश्य रही होगी। लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि हमारे देश की सरकारें और केंद्रीयकृत योजनाएं जबरदस्ती सबको एक समान बनाने के फॉर्मूले पर अड़ी रहती हैं।
इस कारण देश, समाज, जनता और संसाधनों का दुरुपयोग और बर्बादी तो होती ही है, देश की तरक्की भी प्रभावित होती है। शिक्षा का क्षेत्र इसका ज्वलंत उदाहरण है। इस क्षेत्र की वर्तमान स्थिति ये है कि छात्र, अभिभावक, अध्यापक, स्कूल सभी परेशान हैं और किसी की भी समस्या का समाधान नहीं हो पा रहा है।
क्या है समस्या?
एक तरफ जहां, शिक्षा के मद में सरकार द्वारा किया जाने वाला खर्च लगातार बढ़ता जा रहा है जबकि स्कूल जाने वाले छात्रों का बड़ा हिस्सा गुणवत्ता युक्त शिक्षा से मरहूम है। सरकार फीस नियंत्रित कर रही है लेकिन अभिभावक फीस वृद्धि की समस्या से फिर भी परेशान हैं।
अध्यापकों को प्रशिक्षित करने के तमाम उपाय किए जा रहे हैं, लेकिन यह गुणवत्ता युक्त शिक्षा के रूप में फिर भी दिखाई नहीं दे रही है। और तो और चोर, लुटेरे, व्यवसायी, मुनाफाखोर जैसी संज्ञा और उपमाओं से नवाजे जाने वाले निजी स्कूल अलग परेशान हैं और दिनों-दिन बढ़ते लाइसेंस, परमिट और इंस्पेक्टर राज के कारण प्रशासनिक शोषण का शिकार हो रहे हैं। इसकी परिणति देश में बड़ी तादाद में बंद होते स्कूल और अभिभावकों व छात्रों के समक्ष उत्पन्न होती विकल्पहीनता की स्थिति के तौर पर देखने को मिल रही है।
कैसे हो समाधान?
समस्या के बारे में अलग-अलग विस्तार से काफी चर्चा हो चुकी है। लेकिन यदि एक वाक्य में कहें तो सभी समस्याओं की जड़ में शिक्षा से संबंधित सभी नीतियों का परिणाम आधारित होने की बजाए निवेश आधारित होना है।
हमारी शिक्षा नीति इस बात की अनदेखी करती है कि यह क्षेत्र भी अन्य क्षेत्रों की भांति विविधताओं से युक्त है और सभी को एक खांचे में फिट कर पाना संभव नहीं है। ठीक उसी प्रकार जैसे कि बड़े और भारी उद्योगों और छोटे और लघु उद्योगों को समान प्रकार के नियमों के अधीन नियमित नहीं किया जा सकता।
स्कूलों के मामले में भी कमोबेश यही हालत है। देश में शिक्षा व्यवस्था केंद्र सरकार द्वारा संचालित स्कूल, राज्य सरकार द्वारा संचालित स्कूल, नगर निगमों द्वारा संचालित स्कूल, सरकारी सहायता प्राप्त स्कूल, गैर सहायता प्राप्त बड़े निजी स्कूल, इंटरनेशनल बैकलॉरिएट (आईबी) स्कूल और गैर सहायता निजी बजट स्कूल जैसे कई स्वरूपों में विद्यमान है। लेकिन मोटे तौर पर इन्हें तीन वर्गों; सरकारी, सरकारी सहायता प्राप्त, गैर सहायता प्राप्त निजी स्कूलों में विभक्त किया जाता है।
आंकड़ों के मुताबिक स्कूल जाने वाले कुछ छात्रों की 52-55 फीसद संख्या सरकारी स्कूलों में और 45-48 फीसद संख्या निजी स्कूलों में जाती है। हालांकि एक महत्वपूर्ण बात जिसकी हमेशा अनदेखी हो जाती है, वो यह है कि निजी स्कूलों में नामांकित कुल छात्रों का 80 फीसद हिस्सा बजट स्कूलों में पढ़ता है। ये वो स्कूल हैं जो सरकार द्वारा सरकारी स्कूलों में प्रति छात्र प्रतिमाह खर्च की जाने वाली धनराशि के बराबर या उससे कम शुल्क लेते हैं।
अब समस्या शुरू होती है शिक्षा को लेकर बनने वाली सरकारी नीतियों के साथ। दरअसल, नीति निर्धारण के समय अक्सर सभी स्कूलों और सभी छात्रों को समान खांचे में रखकर देखा जाता है जबकि इन छात्रों की आर्थिक, सामाजिक, पारिवारिक और शैक्षणिक स्थितियों में तमाम भिन्नताएं होती हैं।
शिक्षाविदों और शोधार्थियों के द्वारा समय-समय पर अलग-अलग वर्ग के लिए अलग नीतियां तय किए जाने की मांग होती रहती हैं। बजट स्कूलों द्वारा भी शिक्षा नीतियों के निर्धारण के दौरान अपने प्रतिनिधित्व की लंबे समय से मांग की जाती रही है।
केंद्र सरकार द्वारा पिछले कार्यकाल के दौरान ही नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति लाने की घोषणा की गई थी तब स्कूलों को यह उम्मीद थी कि इस प्रक्रिया में उनका प्रतिनिधित्व भी शामिल किया जाएगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। शिक्षा नीति के मसौदे को तैयार करते समय जब जिले और तालुका स्तर पर रायशुमारी की जा रही थी तब भी उनकी अनदेखी की गई। परिणाम यह हुआ कि शिक्षा नीति के प्रस्तुत मसौदे में वे तमाम खामियां रह गई जिनके बारे में बजट स्कूल आशंकित थें।
बजट स्कूलों के अखिल भारतीय संगठन, नेशनल इंडिपेंडेंट स्कूल्स अलायंस (निसा) के राष्ट्रीय अध्यक्ष कुलभूषण शर्मा का कहना है कि सरकार सभी प्रकार के स्कूलों के लिए समान नियम लेकर आती है जो कि न केवल काफी निवेश आधारित होते हैं बल्कि अव्यवहारिक भी होते हैं।
उदाहरण के लिए स्कूलों को मान्यता प्रदान करने के लिए भूमि और भवन सहित अध्यापकों के वेतन आदि से संबंधित सभी नियम समान है। यह समझना कठिन नहीं है कि आठ हजार रुपए प्रतिमाह और आठ सौ रुपए प्रतिमाह फीस वाले स्कूल एक समान नियमों का पालन कैसे कर सकते हैं।
कुलभूषण शर्मा के मुताबिक ऐसा भेदभाव तबतक होता रहेगा जबतक बजट स्कूलों का प्रतिनिधित्व नीति निर्धारक समूह में शामिल नहीं किया जाएगा। उनका कहना है कि भेदभाव पूर्ण नियमों के कारण देश में बड़ी संख्या में स्कूल बंद हो चुके हैं और अनेक स्कूलों पर तालाबंदी का खतरा मंडरा रहा है। इससे उन छात्रों और अभिभावकों के चयन के अधिकार पर भी रोक लग रही है जो अपने बच्चों को मुफ्त सरकारी स्कूलों में न भेजकर कम शुल्क वाले बजट प्राइवेट स्कूलों में भेजने का फैसला लेते हैं ताकि गुणवत्ता युक्त शिक्षा प्रदान कर अपने बच्चों का भविष्य बना सकें।
डिस्क्लेमर:
ऊपर व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं और ये आवश्यक रूप से आजादी.मी के विचारों को परिलक्षित नहीं करते हैं।
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